कह देना उनको,यह कविता है
राजनीति का जाल नहीं है
मैं इन्द्रधनुष हूँ
मेरा रंग सिर्फ लाल नहीं है ।
शैशव में जब जनतंत्र हमारा
खेल रहा था कंचों से
कविते! तब भी तू ही जूझी थी
कपटी छल प्रपंचों से
फिर आज क्यों शीश नत हैं,
क्यों हाथों में भाल नहीं है
मेरा रंग सिर्फ लाल नहीं है ।
धनु बड़े विशाल पड़े हैं
प्रत्यंचों को चढ़ाए कौन?
कसीदेकारी ही धंधा है
रंगमंचों को सजाए कौन?
जिनकी लेखनी बिक गई, सुन लें
उनसे दोयम कोई विषव्याल नहीं है
मेरा रंग सिर्फ लाल नहीं है ।
दो एक हुकुमत जीतोगे
दो एक अगवा कर लोगे
इतने में ही क्या मानचित्र
राष्ट्र का भगवा कर लोगे ?
साहब! यह हिन्द है
कोई जागीरी माल नहीं है
मेरा रंग सिर्फ लाल नहीं है ।
पुनश्च: आजकल लोग वामपंथी कहने लगे हैं पुरानी कविताओं को देखकर, तो स्पष्टीकरण देना जरूरी हो गया था कि कविता एक रंग कि नहीं होती , कभी लाल लगेगी तो कभी भगवा भी। उसे तो विचारधाराओं कि जंजीर से सदा मुक्त रखा है मैंने 😊
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